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Religion vs freedom of expression

 कुछ दिनों पहले मैंने अपने इंस्टाग्राम पर यह सवाल डाला था , कि तुम रीलीजन और फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन में से क्या चुनोगे ? जिसके जवाब में 21% लोगों ने कहा था कि वह रिलीजन को चुनेंगे और 79% लोगों ने कहा था कि वह फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन को चुनेंगे ।



   मगर आज हम बात करेंगे कि क्यों रीलीजन या धर्म और फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन के बीच टकराव होता है ? और क्या हम इस टकराव से बच सकते हैं ?


    सबसे पहले यह टकराव होता क्यों है? धर्म में कोई पूजा अर्चना किसी विधि से हम भगवान या परमात्मा  के साथ जुड़ते हैं,  या महसूस करते हैं कि वह है । धर्म का व्यावहारिक अर्थ है कि,  तुम उस  सुप्रीम पावर या  ट्रुथ के साथ जुड़ने के लिए या उसे महसूस करने के लिए कुछ करते हो ।


   जब तुम हिंदुओं की बात करते हो तो उनमें कई सारे देवी देवता है और हर देवी देवता को प्रार्थना करने का या उनकी शक्तियों को या उनको अपना महसूस करने के कई तरीके हैं और वैसे ही अलग-अलग धर्मों के अलग-अलग रास्ते या क्रियाकलाप है ।


    फ्रीडम ऑफ स्पीच या एक्सप्रेशन का भगवान से कोई नाता नहीं होना चाहिए । उसका लेना देना सिर्फ उन क्रियाकलापों से होना चाहिए जिसके अंतर्गत हम भगवान है यह महसूस करते हैं या उनकी प्रार्थना करते हैं।


   अब यहां यह समझना जरूरी है कि यह धर्म के क्रियाकलाप लोक बचपन से करते हुए आए हैं उनका विश्वास या बिलीफ इन प्रक्रिया में बहुत गहरा हो जाता है और जब कोई फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन के हक के तहत कोई ऐसी बात करता है जो उनके विश्वास के ऊपर घांव करती है तो वह उस बात का स्वीकार नहीं करेंगे यह सहज  है ।


   मगर इसका अर्थ यह भी नहीं है कि लोगों के अंधविश्वास में फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन का इस्तेमाल करते हुए विचारों को बयां न करने चाहिए ।


            हमेशा सवाल पूछिए और जानिए कि क्या सच में यह विश्वास है या अंधविश्वास ? उसके बाद अपना मंतव्य तैयार कीजिए और यह भी हमेशा याद रखें अगर आपकी सोच सामने वाले का अच्छा करने की हो तो  ही अपने मंतव्य को बयां कीजिए ।


         हमेशा याद रखें कि धर्मों में भी कुछ भी परिवर्तित हुआ है तो उसका कारण कभी ना कभी किसीना किसीने धर्मों को इस परिवर्तनों को लाने के लिए मजबूर किया होगा ।


लास्ट शॉट:- 


ऐसा समय आने वाला है कि जब सच सिर्फ जोकर कह सकेंगे ।


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